देव पूजन की प्रविधि सामान्यतया अतिथि सत्कार की पुरातन परंपरा के समान है। इसके अंतर्गत हम भगवान का आवाहन करते हुए विभिन्न सामग्री से उनकी सेवा सत्कार की भावना करते हैं।
इसी के समानांतर दो अन्य बिंदु भी जुड़ जाते हैं-
प्रथम- स्वयं का शुद्धीकरण या पवित्रीकरण तथा ध्यान-प्रार्थना
द्वितीय- जिस सामग्री से हम भगवान का पूजन अर्चन करते हैं, उस पूजन सामग्री का भी शुद्धीकरण या पवित्रीकरण
इसके अतिरिक्त स्वयं व वस्तु दोनों में ही दिव्य भाव के आवाहन हेतु भी उसके पूजन का विधान करते हैं।
कर्मकांड के साथ-साथ सामान्य तौर पर जो मंत्रों के पाठ की प्रक्रिया है, उसमें वैदिक एवं लौकिक दोनों तरह के मंत्र पढ़े जाते हैं। वैदिक मंत्र सामान्यतः दार्शनिक प्रकृति के मंत्र हैं, जिनका कालांतर में कर्मकांडीय उपयोग होने लगा।
कर्मकांडीय दृष्टि से पूजन की विभिन्न व विशेष परंपराएँ रही हैं, जिनमें पंचोपचार तथा षोडशोपचार पूजन सर्वाधिक प्रमुख हैं।
पूजन विधि के लिए कोई एकरूप प्रक्रिया निर्धारित नहीं की जा सकती, क्योंकि अवसर व देव के अनुसार प्रक्रिया परिवर्तित हो सकती है। विद्वानों का मतैक्य भी संभव नहीं और भक्ति के भाव का विधानीकरण भी संभव नहीं।
फिर भी जनसामान्य के पूजन-अर्चन के लिए पूजा पद्धति की सामान्य रूपरेखा निर्धारित की जा सकती है। इसके साथ ही कुछ जनसुविधार्थ सामान्य दिशानिर्देश भी बनाए जा सकते हैं, जैसे-
33 कोटि देवता
त्रिदेव,
नवदुर्गा
एकादश रुद्र
नवग्रह,
दश दिक्पाल,
षोडश लोकपाल
सप्तमातृका,
दश महाविद्या
बारह यम
आठ वसु
चौदह मनु
सप्त ऋषि
घृतमातृका
दश अवतार
चौबीस अवतार
आदि
ध्यातव्य है कि पूजन के इस प्रकरण के अभ्यास से संकल्प विशेष का परिवर्तन करके विविध पूजा के आयोजन सामान्य रूप से कराये जा सकते हैं।