हे जन-गण के भाग्यविधाता! जगन्नाथ स्वामी !
जन-मन-रंजन, जग-जीवन-धन, प्रभु अन्तर्यामी ।। ० ।।
तुम हो प्रेरक अखिल विश्व के जल के, थल के, नभ के । तुम हो स्रष्टा, तुम्हीं सृष्टि हो, तुम हो रक्षक सबके ।। तुम हो एक-अनेक-अगोचर, तुम्हीं ध्येय तुम ध्यानी । द्रष्टा तुम हो, दृश्य तुम्हीं हो, तुम्हीं ज्ञेय तुम ज्ञानी ।।
जय जगन्नाथ स्वामी, जय जगन्नाथ स्वामी ।। १ ।।
जन-जन में सब जड़-चेतन में, लता-कुंज-तरु-तृण में । वन-उपवन में, श्यामल-घन में, जगती के कण-कण में ।। जीवन में, प्रति प्राण-प्राण में, प्राणों के स्पंदन में । सुख में, दुख में, हानि-लाभ में, करुणा में, क्रंदन में ।।
हे अज-अव्यय ! सत्य-सनातन ! गुणातीत निष्कामी । जन-मन-रंजन, जग-जीवन-धन, प्रभु अन्तरर्यामी ।। जय जगन्नाथ स्वामी, जय जगन्नाथ स्वामी।। २।।
अशन-व्यसन में, रसन-श्वशन में, शयन-स्वप्न चेतन में । कर्म-धर्म में, मर्म-मर्म में, तुम सबमें, सब तुममें ।। तुम हो पालक, तुम संहारक, तुम कठोर, तुम कोमल । मंगल सदन, अमंगल सूदन, तुम चिर-निर्मल-उज्वल ।।
महामान्य हे महाबलेश्वर ! शिव हर औढरदानी । जन-मन-रंजन, जग-जीवन-धन, प्रभु अन्तर्यामी ।। जय जगन्नाथ स्वामी, जय जगन्नाथ स्वामी।। ३।।
राम-कृष्ण तुम, बुद्ध-विष्णु तुम, गणपति तुम त्रिपुरारी । सूर्य-शक्ति तुम, भक्ति-मुक्ति तुम, महावीर व्रतधारी ।। ईश्वर तुम, अविनश्वर तुम हो, परमपिता परमेश्वर । निराकार, साकार, गुणाकर, सर्वेश्वर, योगेश्वर ।।
हे परमेश्वर ! चिदानन्दघन ! तुम्हीं नाम, तुम नामी ।
जन-मन-रंजन, जग-जीवन-धन, प्रभु अन्तर्यामी ।। जय जगन्नाथ स्वामी, जय जगन्नाथ स्वामी ।। ४ ।।
तेरे द्वार खड़ा एक योगी नैन पात्र फैलाकर । जीवन सफल बनादो भगवन् ! दर्शन भिक्षा देकर ।। नहीं है आशा और कहीं कुछ पाने की होने की । एक प्यास है जनम जनम की प्रिय! तव शुभ दर्शन की ।।
हे मंगलमय हृदयदेवता ! कृपा करो अब स्वामी । जन-मन-रंजन, जग-जीवन-धन, प्रभु अन्तर्यामी ।। जय जगन्नाथ स्वामी, जय जगन्नाथ स्वामी।। ५ ।।